परिणीता भाग :- ९
Parineeta भाग :- ९
‘मुझे तो तुमने इसके बारे में बताया भी नहीं।’
अन्नाकाली-पहले से कोई तय न था, दीदी। अभी तो पिताजी ने पत्र देखकर बताया है कि आज के अलावा इस महीने में कोई लग्न नहीं है। कन्या बड़ी हो गई है, यदि ब्याह न हुआ, तो सब लोग चिढ़ाएंगे। आज ही शुभ मुहूर्त मं ब्याह हो जाएगा, दीदी! हां, दो रूपए दो, बरातियों के लिए मिठाई मंगवा लो।
ललिता ने हंसी में कहा- ‘वाह, केवल पैसौं की आवश्यकता पड़ने पर छोटी दीदी की याद आती है। जा, मेरे तकिए के नीचे से ले आ। किंतु यह तो बता अन्ना, कहीं गेंदे के फूलों से ब्याह हुआ करता है?’
गंभीरता के साथ अन्नाकाली ने उत्तर दिया- ‘दूसरे किसी फूल के न मिलने पर, गेंदे के फूलों की वरमाला बना लेने क्या हर्ज है? मैंने तो इसी तरह तमाम लड़कियो का ब्याह गेंदे के फूलों से किया है, दीदी। मुझे यह सब बातें ज्ञात हैं।’ यह कहकर वह मिठाई लेने चली गई।
ललिता वहीं पर बैठ कर माला गूंथने लगी।
थोड़ी देर पश्चात् अन्नाकाली ने वापस आकर कहा- ‘सभी को तो न्योता दे चुकी हूँ, केवल शेखर भैया को देना बाकी है। उन्हें भी न्योता दे आऊं, नहीं तो बुरा न मान जाए।’ यह कहती हुई वह तुरंत शेखर के कमरे की और चली गई।
अन्नाकाली पूरी दादी है। सभी काम नियमनपूर्वक करती है। वह उम्र में तो छोटी है, किंतु बुद्धि उसकी बड़ी तीव्र है। शेखर को बुलावा देकर वह नीचे आई और ललिता से बोली- ‘शेखऱ भैया ने एक हार मांगा है। जाओ, जल्दी से दे आओ। मैं यहाँ का सारा काम पूरा करती हूँ। अब मुहूर्त का समय आ गया है-देर करने की आवश्यकता नहीं है।’
ललिता ने गरदन हिलाकर कहा- ‘अन्नाकाली! मुझसे ऐसा न हो सकेगा, तू ही जाकर दे आ।’
‘बहुत अच्छा, मैं जाकर दे आती हूँ। वही बड़ी माला उठाकर लाओ।’
ललिता ने माला उठाकर अन्नाकाली को देते-देते न मालूम क्या सोचा और बोली- ‘अच्छा, मैं ही देर आती हूँ।’
अन्नाकाली ने बुडढों की भांति गंभीर स्वर में कहा- ‘ऐसा ही करो, जीजी! मुझे तो अबी सैकड़ों काम करने बाकी हैं, दम लेने तक का मौका नहीं मिलता।’
अन्नाकाली के कहने के ढ़ंग और बुडढों जैसी बातें सुनकर ललिता की हंसी न रुक सकी। वह माला लेकर, हंसती हुई चली गई। शेखर के घर पहुंचकर ललिता ने झरोखे से देखा कि शेखर कोई पत्र लिखने में एकाग्रचित व्यस्त है। धीरे से उसने दरवाजा खोला, अंदर पहुंची और चुपके से शेखर के पीछे जा खड़ी हुई। उसके वहाँ आने का आभास शेखर को नहीं हुआ। क्षणभर चुप रहने के पश्चात ललिता ने शेखर को चकित कर देने के लिए धीरे से वही माला पहना दी और तुरंत कुर्सी के पीछे हटकर बैठ गई।
शेखर ने चौंककर बोला- ‘यह क्यो अन्ना?’ लेकिन गरदन घुमाते ही उसकी दृष्टि ललिता पर पड़ी, तो आश्चर्यचकित हो वह गंभीर भाव से बोला- ‘ललिता, यह तुमने क्या कर दिया?’
शेखर के शब्दों से शंकित ललिता ने उठकर कहा- ‘मैंने क्या कर दिया?’
शेखर-‘मुझसे क्या पूछ रही हो? तुम्हें नहीं पता, तो अन्नाकाली से जाकर पूछो कि आज रात को माला पहनाने से क्या होता है?’
ललिता अब समझी कि उसने क्या कर डाला। उसके मुख पर लज्जा छा गई। वह बड़े ही संकोच से मुंह बनाते हुए बोली- ‘नहीं, ऐसा नहीं! मैं ऐसा कभी नहीं चाहती, मैंने तो माला... ।’ पूरी बात कहे बिना ही वह नवविवाहिता की भांति लजाकर कमरे से बाहर चली गई।
शेखर ने उसे जाते देखकर जोर से पुकारा- ‘ललिता! जरा मेरी एक बात सुनती जाओ, एक बड़ा ही आवश्यक कार्य है।’
शेखर की पुकार सुनकर भी ललिता ने अनसुनी कर दी वह सीधे अपने कमरे में आई और तकिए पर मुंह डालकर पड़ी रही।
बचपन से लेकर इस युवावस्था के पाँच-छः वर्षो तक का समय उसने शेखर के साथ की काटा था, परंतु एसी कोई भी बात शेखर के मुंह से सुनी न थी। शेखर का स्वभाव तथा चरित्र वह भली प्रकार जानती थी। वह गंभीर प्रकृति वाला था। एक तो शेखर उससे परिहास करता ही न था, और यदि कर भी बैठता, तो ललिता परवाह न करती थी। उसने कभी इस प्रकार की कल्पना भी न की थी। उस माला के आशय को सोच-सोचकर उसे बड़ी शर्म आ रही थी कि वह अपने मुंह को किस बिल में छिपा दे।
वह पड़ी-पड़ी यह भी विचारती थि कि ‘उन्होंने आवश्यक कार्य कहकर बुलाया है।’ अभी वह जाने या न जाने की बात विचार ही रही थी कि शेखर की नौकरानी ने आकर कहा- ‘ललिता दीदी, कहाँ हो? तुमको छोटे भैया बुला रहे हैं।’
कमरे से निकलकर ललिता ने धीरे से कहा- ‘चलो, आ रही हूँ!’ ऊपर पहुंचकर दरवाजे से उसने देखा-अभी पत्र नहीं हुआ। उसी को पूरा करने में लगा हुआ है। कुछ समय तक वह चुपचाप खड़ी रही, फिर पूछा- ‘क्यों बुलाया है?’
शेखर ने पत्र लिखते-लिखते कहा- ‘आखिर तुमने आज क्या कर डाला? आओ बैठो।’
ललिता ने रुठकर कहा- ‘जाने दो फिर वही बात?’
‘आखिर उसमें मेरा क्या कसूर है, ललिता? तुम्हीं ने तो यह सब किया।’
ललिता- ‘मैंने कुछ नहीं किया, मेरी माला वापस कर दो।’
शेखर- ‘इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है, ललिता। मेरे पास आओ, मैं तुम्हारी माला वापस किए देता हूँ। तुमने जो अधूरा काम किया है, उसको पूरा कर दूं।’
दरवाजे के पास खड़ी हुई ललिता चुपचाप न जाने क्या सोचती रही। फिर बोली- ‘मैं सत्य कहती हूँ- यदि ऐसा हंसी-मजाक मुझसे करोगे, तो कभी न आऊंगी। मेरी माला लौटा दो।’
शेखर ने गले में पड़ी माला को उतारकर कहा- ‘आकर ले जाओ ना’
‘उसे मेरे पास फेंक दो, मैं वहाँ न आऊंगी।’
‘यदि पास न आओगी तो न दूंगा।’
‘न दो।’ यह कहकर ललिता चल पड़ी।
उसे जाते देखकर शेखर चिल्लाकर बोला- ‘यह अधूरा काम छोड़कर क्यों जा रही हो?’
वह जाते-जाते नाराज होकर कहती गई- ‘अधूरा है, तो अधूरा ही सही।’
ललिता वहाँ से चली तो आई, परंतु नीचे नहीं गई। वह छज्जे के एक कोने पर खड़ी होकर, आकाश की ओर देखती हुई न जाने क्या सोचती रही। ऊपर चांद मुस्कुरा रहा था और उसकी सुनहरी किरणें सारी दुनिया को रंगमय बना रही थीं। उन शीतल किरणों के रंग में ललिता भी विभोर थी। खड़े-खड़े उसके हृदय में न जाने क्या-क्या कल्पनाएं उठ रही थीं। अपने ऊपर क्रोध भी आ रहा था और शर्म भी। वहीं खड़े-खड़े एक बार शेखर के कमरे की तरफ देखा। पता नहीं क्यो, उसके चेहरे पर अभिमान की रेखा झलक आई और नेत्र सजल हो गए। वह अबोध बालिका न थी कि उसे इन सब बातों का पता न था, फिर इस प्रकार हंसी करने का क्या मतलब हो सकता था। उसकी दशा कितनी गिरी हुई है, वह एक अनाथ बालिका है-उसके मामा का ही एकमात्र सहारा है। फिर भी पराए लोग निरुपाय समझकर आदर करते हैं। शेखर का व्यवहार भी इसी प्रकार का है। वह मुझे निराश्रित समझकर ही स्नेह और आश्रय देता है, तथा शेखर की माँ भी अपार स्नेह करती हैं। दुनिया में सका है ही कौन? किसी पर ललिता का अधिकार नहीं है, इसीलिए तो गिरीन्द्र ने उसके उद्धार का पूरा भार उठाया है।
अपने नेत्र बंद किए हुए ललिता मन-ही-मन सोचने लगी। उसके मामा की अपेक्षा शेखर की दशा बहुत अच्छी है। उसके मामा का स्थान उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह उसी मामा के आश्रय में है, उनके ही गले का जंजाल है। शेखर की शादी की बातचीत बराबरी में धनवान घर से चल रही है, चाहे वह अभी हो या दो-चार दिन बाद, पर तय करीब-करीब वहीं है। इस विवाह से नवीनराय को बहुत बड़ी सम्पदा मिलेगी-उसने ऐसा शेखर की माँ से सुना है।
शेखर भैया फिर क्यों स प्रकार उसकी हंसी उड़ा रहे है और तिरस्कार कर रहै हैं? यह सभी बातें ललिता सूने आकाश की और देखकर सोच रही थी। क्षणभर में ही उसने घूमकर देखा कि शेखर उसके पीछे खड़ा हंस रहा है, और वही माला उसने एकदम-से उसके गले में पहना दी। यह देखकर वह रोने लगी और बोली- ‘ऐसा तुमने क्यों किया?’
‘तुमने भी ऐसा क्यों किया था ललिता?’
‘मैंने तो कुछ भी नहीं किया’- यह कहकर वह माला तोड़ने ही जा रही थी कि उसकी दृष्टि शेखर की दृष्टि से जा मिली और रुक गई। वह माला को फिर न तोड़ सकी, परंतु उसने रोते हुए कहा- ‘मैं परेशान, अभागिन तथा असहाय हूँ, इसलिए क्या मेरा उपहास कर रहे हो, शेखर भैया?’